2 भाईयोंका प्रेम और 1 की चालाकी :अच्छे लोग अपनी अच्छाई कभी नही छोडते।

2 भाईयोंका प्रेम और 1 की चालाकी :अच्छे लोग अपनी अच्छाई कभी नही छोडते।

भाईयोंका pyaar और चालाकी : परावसु तथा अर्वावसु की कहानी

      भाईयोंका pyaar और चालाकी की कहानी शुरु होती है एक यज्ञसे।राजा बृहध्युम्न महर्षि रैभ्य मुनी के शिष्य थे। एक बार उन्होंने  मुनी से कहा, “मुनीवर,मेरे यहां एक बहुत बड़ा यज्ञ  कराना है। तो आपके दोनों पुत्र को यज्ञ करने के लिए भेज दीजिए। मुनी  ने उनको सम्मति दे दी और परावसु तथा अर्वावसु बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा की राजधानी में गए। वहां यज्ञ की जोरदार तैयारियां चल रही थी।

    यज्ञ में एक दिन का समय था ।वह परावसु को लगा कि चलो जरा मैं अपनी पत्नी से मिल आता हूं । रातों-रात यह आश्रम की तरफ चल पड़े और अभी सुबह हुई नहीं थी कि वह आश्रम के पास पहुंच गए।

अचानक उनकी नजर एक झुंड की तरफ गई। उनको लगा की यहां पर कोई जंगली जानवर घुस गया है। परंतु उन्होंने हथियार ताका और वहां पर एक बड़ी चीख सुनाई पड़ी।वह आश्चर्यचकित हो गया। धीरे धीरे चल के वहां पहुंचा तो देखा कि अपने शरीर पर चमडा चढ़ाकर परावसूके पिता बैठे थे ने अपने खुद के पिता को मार डाला।  

उनको बड़ा दुख हुआ फिर उसको याद आया के यह तो मुनी भारद्वाज ने हमको श्राप दिया था वही  हुआ है। और वह अनजानेमे दुघर्टनाका निमित्त बन गया । उसने जल्दी-जल्दी पिता का अग्नि संस्कार किया और तुरंत बिना किसी को बताए, राजधानी में आकर यज्ञ के लिए तैयार हो गया।

        भाईयोंका pyaar आपसमे अच्छा था लेकिन परावसु स्वार्थी था। परावसुने उसे कहा, “भाई, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। अनजाने में मुझसे पिता की हत्या हो गई और एक तो पिता की हत्या और ब्रह्महत्या मुझे इसका प्रायश्चित करना चाहिए। इस तरफ तू अकेला यज्ञ नहीं कर पाएगा, इसीलिए मुझे अपना का कार्य पूरा करना ही पड़ेगा। राजा के इस यज्ञ में कोई भी विघ्न नहीं आना चाहिए। तो अवार्वसू एक काम करो, ब्रह्म हत्या तो मैंने की है लेकिन इसका प्रायश्चित तू कर । जब तक मैं यह राजा का यज्ञ अच्छी तरह से पूरा करता हूं।”

          अवार्वसू धर्मात्मा था और अच्छे स्वभाव का था। उसने कहा, “बड़े भैया, तुम ठीक कह रहे हो । मैं मेरे अकेले से ही अपना पूरा नहीं हो पाएगा और आपने प्रायश्चित तो करना ही है, तो आप के बदले में मैं प्रायश्चित करूंगा। यज्ञ आप पूरा करिए और मैं व्रत का प्रायश्चित पूरा करके वापस आऊंगा ।”  भाईयोंका pyaar की कथा आगे सुनें।

       इतना कहकर वह चला गया फिर उसने विधिपूर्वक व्रत धारण किया । उसके भाई ने पिता की हत्या की थी। इस ब्रह्महत्या का उसने प्रायश्चित किया । समय पूरा हुआ वह आश्रम की यज्ञशाला में आकर रहा और तब उसके मुंह पर एक अजीब सा तेज चमक रहा था ।

           परावसूने उसको देखा और उसके मन में फिर बुरे काम का एक विचार आया। वह सोचने लगा, “अवार्वसू तो प्रायश्चित करके आया है लेकिन उसका मुंह तो देखो। उसके मुंह पर कितना ब्रह्म तेज चमक रहा है।” उसके मन में जलन हुई। भाई का तेज वह सह नहीं पाया। उसने खुद ने किया पाप अभी उतरा नहीं,उतने में उसने दूसरे पाप का निश्चय कर लिया। भाईयोंका pyaar वह भूल गया।

      उसने जोर जोरों से उसकी तरफ चिल्लाया। “ हे राजा बृहध्युम्न, यह अवार्वसू मेरा भाई है, लेकिन यह ब्रह्म हत्यारा है। ऐसे घातक आदमी को आप यज्ञशाला में क्यों आने देते हैं ? उसको यहां से भगा दो।” परावसुको शायदसे सब दक्षिणा और यश एठनेका लालच आ गया, या उसने कोइ पुरानी भडास अवार्वसू पर निकालनेका तय किया।

एक पाप किया , दुसरा करनेकी ठान ली ।हो गया ,उसका झूठ राजा ने सच मान लिया। राजा के नौकरों ने आकर अवार्वसू को बाहर निकाल दिया ।  भाईयोंका pyaar वहीं खाक हो गय़ा।

भाईयोंका pyaar और चालाकी : परावसु तथा अर्वावसु की कहानी

              अवार्वसू को यह व्यवहार देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उसको पता नहीं था कि उसके बड़े भाई ने राजा को क्या कहा था? वह सोच रहा था कि मैं राजा से मेरे अपमान का बदला लूंगा। उसने कहा, “हे राजा मुझ पर ब्रह्म हत्या का बड़ा आरोप लगाया गया पर मैंने तो कोई ब्रह्म हत्या की नहीं है। यह करने वाला तो मेरा बड़ा भाई है ।

तुम्हारा यज्ञ निर्विघ्न पूरा हो जाए इसीलिए ब्रहमहत्या का प्रायश्चित करने का जिम्मा मैंने मेरे सर पर लिया। तथा परावसू आपका यज्ञ निर्विघ्न करने हेतु, पीछे रह गया। आज ही मैं प्रायश्चित करके आया हूं और तुम लोग मुझे ब्रहम हत्यारा कहकर धक्के मार रहे हो। यह बहुत बड़ा अन्याय है। बहुत बड़ा अपमान है ।”

      लेकिन उसकी कोई भी बात उन्होंने सुनी नहीं। उल्टा सामने से उनको कहने लगे कि यह तो कैसा अंधेरे है।  यह आदमी खुद प्रायश्चित करके आया है और उसके पाप का भार परावसु पर डाल रहा है। उसे निकाल दो यहां से। निकाल दो इस ब्रह्म हत्यारे को।

इस तरह से अपमान सहन कर धर्मात्मा अवार्वसू  अंदर ही अंदर बहुत ही परेशान होने लगे ।गुपचुप यज्ञशाला के बाहर निकल गया। यज्ञशाला के बाहर जाकर उसने तपस्या आरंभ की। कई दिनों की तपस्या के बाद, अंत में उसके पर देवता प्रसन्न हुए और उनको पूछा, “अवार्वसु, बोल तेरी क्या इच्छा है ?” 

          परावसु ने उसे अपमानित किया था । उसको धक्के मारे थे, वह बात उसके सामने आने लगी और उसने बोला “ है देवताओं, मेरी क्या इच्छा है आप पूछ रहे हो ? मेरी कामना आप पूरी करने वाले हो यह मैं मानता हूं । पर मैं तो इतना ही चाहता हूं कि मेरे बड़े भाई पर परावसु का पाप धुल जाए और मेरे पिता फिर से जीवित हो जाए।”

देवताओं ने तुरंत कहा, “तथास्तु”। और क्रोध और अपमान ने तिरस्कार के बदले मंगल का रूप ले लिया ।महर्षि लोमश ने कथा का उपसंहार किया।

            वनवास के बारह वे  वर्ष में पांडु के पुत्र और द्रौपदी तीरथ करने को निकले हैं महर्षि लोमश उनके साथ है । गंगा के किनारे आते-आते पांडव विद्या- आश्रम के वन में पहुंच गए। महर्षि लोमश कहते हैं, “हे युधिष्ठिर, यह आश्रम अति पवित्र गंगा के किनारे है। यहीं पर दशरथ नंदन भरतने स्नान किया था। यहीं पर इंद्र ने वृत्रासुर का वध करके प्रायश्चित किया था।

यहीं पर सनत कुमार ने सिद्धि ली थी। सामने जो पहाड़ दिख रहा है वहीं पर अदिति मुनि ने तपस्या की थी और यहीं पर यह यवकृत ने अपना अपनी जान दे दी थी। तो यहां गंगा जी का स्नान करो और पवित्र जल से अपने अंदर का क्रोध तथा अहंकार दूर करो।” भाईयोंका pyaar की कहानी थी I

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