कौशिक मुनि की सत्य धर्म की खोज कैसे पूरी हुई।  : Part 2

कौशिक मुनि की सत्य धर्म की खोज कैसे पूरी हुई। : Part 2

सत्य धर्म की खोज कैसे पूरी हुई महाभारतकी एक रोचक कहानी

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Kaushik जब मिथिला नगरी में गया, तो उसने लोगों से पूछा, “कौन पारधि है जो धर्म के बारे में सब कुछ जानता है?” तो लोगों ने उससे कहा, “यहां पर माँस की बाजार है, उधर चले जाओ।”

 मास की बाजार में अपना नाक सिकुड़ कर और मुंह को बंद करके वह घूमने लगा और पारधि को ढूंढने लगा । लेकिन यह धर्म का रहस्य जानने वाला ऐसी जगह पर कैसे मिलेगा ? – Kaushik सोच रहा था और घूमते घूमते, सब से पूछ-पूछ कर वह माँस बाजार में पहुंचा था ।

वहां पर कौवे और गीदड़ घूम रहे थे  और माँस को चाट रहे थे। उसके मन में बड़ी हलचल मच रही थी । धर्म का रहस्य और यह  माँस की बाजार में ? वह पतिव्रता पत्नी ने मुझे कुछ गलत रास्ते पर भेज दिया लगता है । Kaushik मन ही मन सोच ने लगा।

वह  दुकान-दुकान पर पूछता है कि धर्मव्याध कौन है ? और अपनी नाक और मुंह को ढक कर आखिर एक दुकान के सामने खड़ा रहता है और पूछता है, “भैया, धर्मव्याध कौन है?” धर्मव्याध  ने माँस तोड़ते हुए कहा, “भाई तुमको वह पतिव्रता देवी ने भेजा है?”

“सही है। ” Kaushik ने कहा ।

“बैठो, मैं ही हूँ धर्मव्याध।”

Kaushik के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही । उसे कैसे पता चला कि वह देवी ने मुझे भेजा है? तो कौशिक धर्मव्याध की ओर  देखने लगा।

धर्मव्याध ने उसे कहा, “ऋषीवर, तुम्हें यहां क्यों आना पड़ा- मुझे मालूम है। चलो, मेरे साथ मेरे घर चलो। तुम्हारी इच्छा वहां पर पूरी होगी । ”

Kaushik अब तक नाक और मुंह बंद करके वहां खड़ा था । धर्मव्याध के घर उसके साथ गया । अपने कुल का, अपने धर्म का, अपनी जात का, अपने व्रत का सभी अभिमान पिघल गया । उसकी विद्वता का और ब्रह्मचर्य व्रत की उपासना का जो उसको घमंड था, वह कम होने लगा। वह थोड़ा सा नरमाया।

लेकिन उससे रहा नहीं गया और उसने पूछा, “धर्मव्याध, तुम्हारा व्यवहार तो एक सज्जन आदमी की तरह है और तुम धंधा करते हो माँस बेचने का? हमको लगता है कि यह ठीक नहीं है। माँस और धर्म का क्या लेना देना? माँस बेचने वाला कैसे धर्म को जान सकता है?” कौशिक ने उससे पूछा।

धर्मव्याधने कहा, “ हे ब्राह्मण देव,” पारधि अपने धर्म के रहस्य एक के बाद एक बताने लगा। “सही बात है, मैं माँस बेचता हूँ  ,लेकिन यह तो मेरे बाप दादा का धंधा है । जो काम मुझे जन्म से विरासत में मिला है और मेरे स्वभाव के अनुसार वही मुझे करना चाहिए । तभी – मेरे दोस्त, अंतर मन में स्वच्छता बनी रहेगी ।

सत्य धर्म की खोज कैसे पूरी हुई – अपने धर्मको निभाकर

Kaushik धर्मव्याध अब धर्म की व्याख्या सुनकर जान गया कि धार्मिक का मतलब “ अपने अंतर की खोज करने वाला ” । Kaushik स्तब्ध रह गया । तो फिर धर्मव्याध अपनी बात आगे बढ़ाकर  बोला, “महाराज आप एक बात समझ लो देखो ,भले ही मेरा धंधा तुम लोगों की नज़रों से हल्का लगे ,लेकिन यह धंधा करना किस तरह से मेरे जीवन में आया, मैं समझाता हूँ  । मैं माँस बेचता हूँ  लेकिन;

  • मेरे हाथों अगर कोई अच्छा कार्य करना रहता है, तो मैं कभी भी उस में आलस्य नहीं करता ।
  • मैं बङों की और गुरुजनों की सेवा करता हूँ ।
  • सत्य का पालन मैं बड़ी ही चाव से करता हूँ ।
  • मैं दान भी देता हूँ  और सुनो महाराज मैं किसी की निंदा नहीं करता ।
  • किसी चीज़ की इच्छा नहीं करता, किसी की ईर्ष्या – द्वेष तो नहीं करता ।
  • कोई अगर मेरी निंदा करता है और कोई मेरी प्रशंसा करता है फिर भी मैं दोनों के सामने समानता से देखता हूँ । समदर्शीता से व्यवहार करता हूँ । इसीलिए मुझे कोई नाराज होने की जरूरत नहीं है । और मुझे एकदम खुशी से पागल होने की भी जरूरत नहीं ।
  • मैं किसी का भला करता हूँ  तो किसी को बताता नहीं । और भला करने के लिए किसी के कहने की राह भी नहीं देखता ।
  • मेरा धर्म मैं पालता हूँ  ।
  • काम, क्रोध और द्वेष यह तो अधर्म है । उसमें मैं कभी नहीं पङता। यह कोई छोटी मोटी बात नहीं । जीवन के घोर संग्राम में यह सब करना पड़ता है। इसीलिए कभी-कभी मेरे से भी पाप कर्म हो जाता है तो फिर मैं उसका प्रायश्चित भी करता हूँ ।
  • यह पाप कर्म मेरे से ना हो इसके लिए मैं हमेशा जागृत रहता हूँ ।हे ब्राह्मण, अब तुम्हें समझ में आया होगा कि मैं दुख और सुख दोनों में समान बुद्धि रखकर जीवन जीताहूँ ।”

Kaushik बड़ी गहराई से बोले, “हे  धर्मव्याध, आप जो कह रहे हो, शब्द शब्द सही है। मैं समझ सकता हूँ । आपने जो जानने लायक था, वह सब कुछ जाना है। धर्मव्याध तुम सर्वज्ञ नहीं हो, लेकिन मैंने एक सवाल पूछना है। तुम्हें यह सिद्धि कैसे  मिली ? कहां से मिली? किस तरह तुमने यह जीवन की साधना की? ”

“ब्राह्मण, यह आपको जानना है, तो चलो मेरे साथ।”

 दोनों के दोनों घाट  के करीब के एक छोटे से झोपड़ी में गए।  देखते हैं कि धर्मव्याध के माता-पिता एक आसन पर संतुष्टि के साथ बैठे हैं । जाते ही व्याध ने माता पिता के चरण को वंदन किया और बहुत ही वात्सल्य भाव से उनको पूछा ।

माता-पिता ने उसे कहा, “बेटा, तू जुगजुग जिएगा। तू हमारा सुपुत्र है। तूने समय-समय पर हमारी हर प्रकार से सेवा की है। हमें तुम भगवान की तरह पूजते हो।”

धर्मव्याध बोला, “मां-बापू, यह हमारे घर पर अतिथि आए हैं। वह ब्राह्मण है उनका नाम कौशिक है।”

माता-पिता दोनों ने Kaushik का स्वागत किया । धर्मव्याध ने कहा,“मेरे माता-पिता को, मैं देवतुल्य समझता हूँ । मेरे स्त्री, पुत्र, मित्र  तथा परिवार से संबंधित सब लोग यह सेवा के निमित्त है। मैं उनको मेरे हाथ से स्नान कराता हूँ । मेरे हाथ से भोजन देता हूँ । उनके लिए मैं सेवक बनता हूँ । और उन्हीं के लिए सब कुछ करता हूँ ।”

कभी भी मैं उनको पसंद ना आए ऐसी बात कहता या बोलता नहीं, या करता नहीं । उनको हमेशा खुश रखता हूँ । जो मैं यह माता-पिता की सेवा करता हूँ , उसी सेवा के बदले में प्रसाद में मुझे ज्ञान मिला है। तुम मेरे ज्ञान से चकित हो गए हो, लेकिन यह माता पिता की सेवा का फल है । मैं तुम्हें इनके दर्शन कराने के लिए ही अपने घर ले आया ।” धर्मव्याध ने बात पूरी की।

Kaushik
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कौशिक यह धर्म के रहस्य जानकर बड़ा खुश हुआ। धर्मव्याध ने अपनी बात आगे बढाई , “देखो महाराज तुम अपने माता पिता की आज्ञा लिए बिना ही पढ़ने को निकल पड़े । विद्या लेने की जो पहली शर्त है वह है  माता पिता का आशीर्वाद । उनकी आज्ञा पाकर पढ़ना चालू करना चाहिए। वह आपने नहीं किया । तुम्हारे माता-पिता बड़ी उम्र के हैं और तुम घर छोड़कर निकल पड़े ।

वही बात को लेकर तुम्हारे माता-पिता रो- रो कर अंधे हो गए । जल्दी  अपने घर जाओ और तुम्हारे माता-पिता की सेवा में लग जाओ । माता-पिता को अगर प्रसन्न करोगे तब ही तुम्हारे धर्म कर्म का अच्छा फल पाओगे । अगर तुम उनको नाराज करोगे, तो तुम्हारे सारे कर्म बेकार जाएंगे ।”

बहुत ही कृतार्थ तथा गदगद होकर  Kaushik घर जाने के लिए निकला । धर्मव्याध से विदाई लेते हुए वह बोला, “हे धर्मव्याध, तुम धन्य हो । तुमने मेरी आंखें खोल दी । तुमने मेरे मन के सामने जो पर्दे थे, वह हटा दिए । तुमने मुझे धर्म का सही रहस्य समझाया । परमात्मा हर एक कण कण में है । हम जो काम करते है, उसमें भी वह रहते हैं । कोई भी व्यक्ति ऊंचा या नीचा नहीं होता। अगर हम कोई भी काम अपना धर्म समझकर करते हैं, तो वही परमात्मा की भक्ति है । मैं ब्राह्मण आपको साष्टांग दंडवत प्रणाम करता हूँ ।”

सत्य धर्म की खोज कैसे पूरी हुई Kaushik जो अपना सही धर्म भूला था – उन्होंने अपने माता-पिता के प्यार के मूल्य को समझा और अपने असली कर्तव्य का एहसास किया । कथा कहती हैं, कि यह धर्म का रहस्य पाकर, कौशिक अपने माता-पिता की भक्ति में लग गया और उसको वेदोंका ज्ञान प्रसाद रूप में मिला ।

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